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विशिष्ट संबोधन - योग का स्वरूप
योगष्चित्तवृत्तिनिरोधः, तदा द्रष्टुः स्वरुपेऽवस्थानम्,
समत्वं योग उच्यते, योगः कर्मसु कौषलम्।
 - परम पूज्य स्वामी रामदेव जी 

क्षिप्त एवं विक्षिप्त अवस्था से बाहर निकलकर एकाग्रचित्त व निरुद्ध चित्त होकर अपने मूल स्वरूप में जीना योग है। समत्व में रहते हुए पूर्ण कुषलता के साथ अपने कर्म या कर्त्तव्य का कृतज्ञता पूर्वक निर्वहन करना योग है। ज्ञान, कर्म एवं उपासना यह योग की त्रिवेणी है। योग के मुख्य रूप से दो पहलु हैं। एक व्यवहारिक योग दूसरा है-आध्यात्मिक योग।

योग एक वैज्ञानिक, सार्वभौमिक व पंथ-निरपेक्ष, प्राकृतिक जीवन पद्धति है। इस सहज] सरल जीवन पद्धति को अपनाकर हम निरोगी, निव्यसनी, स्वस्थ्य, समृद्ध एवं शान्तिमय जीवन को ही जीते हैं तथा अपने भीतर सुप्त असीम ज्ञान एवं सामर्थ्य को विकसित करते हैं, यह योग का व्यहारिक पहलु है।


व्यायाम, यम-नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि रूप आष्टाँग योग के नित्यप्रति अभ्यास से जीवन का पूर्ण विकास करके शील, समाधि एवं प्रज्ञा को प्राप्त करना यह योग का गन्तव्य है। विष्व के किसी भी मजहब में योग का विरोध नहीं है। अपितु एक स्वस्थ व आध्यत्मिक जीवन जीेने का ही सभी धर्मो का उपदेष है। वसुधैव कुटुम्बकम्, सह अस्तित्व, समष्टि के साथ एकत्व तथा अस्तित्व के प्रति पूर्णकृतज्ञयता के साथ पूर्ण पुरूषार्थ करते हुए अभ्युदय व निःश्रेयस को सिद्ध करना या निष्काम, अकाम, अलोभ, आप्ताकाम व आत्मकाम होकर दिव्य जीना यही योग है। यह योग का आध्यात्मिक पहलु है। सभी धर्मो व पंथो के मूल आध्यात्मिक शाष्वत सत्य है। सबके सम्पूर्ण स्वास्थ्य समग्र समृद्धि एवं विष्व-षान्ति का एकमात्र निर्विवादित मार्ग योग है। योग से ही यह सृष्टि दिव्य व भव्य होगी तथा व्यष्टि व समष्टि में भगवत्ता का अवतरण होगा।


आइए! इस प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस पर हम सब योगमय जीवन जीने का संकल्प लें और पूरे विष्व को योगमय बनाने की दिषा में आगे बढ़े। योग को वैष्विक स्तर पर सर्वोच्च गौरव दिलाने हेतु माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी को हृदय से धन्यवाद, पूरे भारत व विष्व की ओर से उनको अनन्य कृतज्ञता।


21वीं सदी विज्ञान एवं आध्यात्म की सदी होगी इसमें प्रोस्पेरिटी “ Prosperity” एवं स्प्रिच्युलिटी “Spirituality” साथ साथ चलेगी और इस समृद्धि एवं शान्ति का आधारभूत तत्व योग होगा।



योग एवं विश्वशांति
"न तस्य रोगो न जरान मृत्युः प्राप्तस्ययोगाग्रिमयं शरीरम् ।।उपनिषद्।।"
 
- आचार्य बालकृष्ण
योग करने वाला व्यक्ति योग की महिमा व भोग के क्षणिक सुखाकर्षण को ठीक-ठीक यथार्थ रूप में अनुभव करता है और अपा अभ्युदय व निःक्षेयस सिद्धि करता हुआ समष्टि के प्रति अपने कर्तव्य को कृतज्ञता पूर्वक निभाता है। व्यक्ति व समष्टि में संतुलन बनाए रखता है। योग करने वाला आध्यात्मिक व्यक्ति अपने ही एकत्व का दर्षन पूरे ब्रह्माण्ड में करता है।

वह वसुधैवकुटुम्बकम्, विष्वबन्धुत्व एवं सृष्टि के सह-अस्तित्व के सिद्धान्त के प्रतिपूर्ण निष्ठा रखता हुआ, सबके सुख, सबकी समृद्धि एवं सबके सम्मान व स्वाभिमान की रक्षा हेतु प्रयत्न करता है। अन्यायपूर्ण युद्ध व हिंसा से वह सर्वथा दूर रहता है। योग करने वाला व्यक्ति सृष्टि के आदिकाल से लेकर आज तक जितनी भी विभिन्न संस्कृतियाँ, सभ्यताएं, परम्पराएं, मत, पंथ, सम्प्रदाय व मजहब है, उन सबका सम्मान करता है। सब में एक ही आत्मा व परमात्मा का दर्षन करता है।


योगी सृष्टि के शाष्वत सत्यों तथा नियामों या यूनिवर्सल लॉ सृष्टि के सनातन धर्मया सनातन को अनुभव करता है तथा उसके अनुरूप् जीता है। मजहब के नाम पर खून खराबा के बारे में यह सोच भी नहीं सकता। योग करने वाला व्यक्ति सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, वैष्विक सुख व सम्बन्धों के संदर्भ में अविवेकपूर्ण आचरण नहीं करता है। योग के मार्ग पर चलकर ही व्यक्ति परिवार, समाज, राष्ट्र व विष्व सुख, समृद्धि, सुरक्षा व शान्तिपूर्वक जी सकता है। योग ही विष्व शान्ति का एक मात्र मार्ग है।