4. अनुलोम-विलोम प्राणायाम-
समस्त व्याधियों को दूर करने के पश्चात पेट के विश्राम देने के बाद तीव्र एवं एकाग्र बुद्धि के साथ आओ अपने अन्तर्मन में झाकने का प्रयास करते हैं। अनुलोम-विलोम का अभ्यास आरम्भ करते हैं।
विधि- दाहिने हाथ को कंधों तक उठाकर दाहिने हाथ के अंगूठे से दाहिनी नासिका बंद करते हुए बायीं नासिका से लंबी सांस छाती में भरें। अब बायी नासिका को अनामिका और मध्यमा से बंद करते हुए दाहिनी नासिका से उसी गति से सांस को बाहर छोड़ें। पिफर दांयी नासिका से लंबा गहरा सांस लें और बायीं से छोड़ें। इस प्रक्रिया को जारी रखें।
समय- 3-4 सेकेण्ड सांस को लेना और 3-4 सेकेण्ड में ही सांसों को छोड़ना। इसे 10-15 मिनट करना चाहिए। कुछ दिन के अभ्यास के बाद लगातार 15 मिनट करें।
संकल्प- प्रत्येक सांस के साथ ओम का जप करना। इन प्राणों के साथ परमात्मा का ध्यान करना और यह सोचना कि मेरा मन, प्राण, आत्मा सब तेजोमय, ज्योतिर्मय हो रहा है। चारों ओर से ईष्वरीय शक्तियाँ और आनंद बरस रहा है। सासों पर ध्यान रखते हुए ऐसा एहसास करना कि मैं ईष्वरीय शक्तियाँ प्राप्त कर रहा हूँ और आनन्द बरस रहा है। सासों पर ध्यान रखते हुए ऐसा एहसास करना कि मैं ईष्वरीय शक्तियाँ प्राप्त कर रहा हूँ।
लाभ: हृदय के समस्त रोग, कंठ की समस्यायें, जोड़ों का दर्द, सन्धिवात, कम्पवात, स्नायु दुर्बलता वात रोग, मूत्र रोग, धातु रोग में लाभ होता है। इन गहरे लंबे सांसों के साथ प्राणवायु धारण करने से रक्त परिषुद्ध होता है। और शुद्ध रक्त नाड़ियों में प्रवाहित होने से शरीर बलवान बनता है। रक्त के सारे दोष मिट जाते हैं।
नकारात्मक को, तब व्यक्ति की गुणवत्ता (फनंसपजल)
उत्पादकता
(च्तवकनबजपअपजल),
रचनात्मकता
(ब्वदेजतनबजपअपजल),
सृजनात्मकता
(ब्तमंजपअपजल)
और सहनषीलता (ज्वसमतंदबम) में वृद्धि होती है। इसी से जीवन में आनंद, उत्साह, सुख और शांति की प्राप्ति होती है। इस प्राणायाम से तन, मन, आचार, विचार,
संस्कार सभी परिषुद्ध होते हैं। देह और मन के सभी दोष मुक्त होते हैं। मन परिषुद्ध होकर ओंकार के ध्यान में लीन हो जाता है। इस प्राणायाम को नियमित 15 मिनट करने से कुण्डलिनी जागृत होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। हेरिडिरी एवं जैनटिक बीमारियाँ समाप्त हो जाती हैं। यह देह रोगालय से देवालय बन जाता है।
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