संस्कार मनुष्य के आभूषण हैं। संस्कारवान व्यक्ति को हम आभूषणों से सुसज्जित मानते हैं। जैसे मिट्टी मिसे हम पैरों तले रोंदते हैं। परन्तु उसी मिट्टी को कुम्हार गंूथकर चाक पर चढ़ाकर अच्छे-अच्छे बर्तन, मटके, सुराही, कुल्हड़ आदि बना देता है। और फिर वही मटका हमारे पानी पीने पीने के काम आते हैं। तो कुम्हार ने मिट्टी को संस्कारित (सुधार)
करके उसे मटके, सुराही आदि का रूप दे दिया हैं।
हमारी वैदिक परम्परा में 16 (सोलह) संस्कारों का प्रावधान है। ये मनुष्य के जन्म होने की आधारषिला से मरणोपरान्त तक पूर्ण होते हैं। ये संस्कार निम्न हैं।
1.गर्भाधान संस्कार 2.पुंसवन संस्कार 3.सीमन्तोन्यन संस्कार 4.जातकर्म
5. नामकरण
6.संस्कारनिष्क्रमण संस्कार 7. अन्नप्राषन संस्कार 8. चूड़ाकर्म
(मुण्डन)
संस्कार
9.कर्णवेधन संस्कार 10. उपनयन (यज्ञोपवीत/जनेऊ) संस्कार 11.वेदारम्भ (षिक्षा प्रारम्भ) संस्कार
12.समावर्तन
(गुरु के यहाँ षिक्षा पूर्ण होने पर) संस्कार 13. विवाह संस्कार 14. वानप्रस्थ संस्कार 15. संन्यास संस्कार 16. अंत्येष्टि संस्कार।
चूड़ाकर्म (मुण्डन संस्कार)ः बच्चे का पहले वर्ष या तीसरे वर्ष में मुण्डन संस्कार करवाना आवष्यक हैै। गर्भ से बच्चे के जो बाल आते हैं उन्हें एक बार सम्पूर्ण रूप से साफ करवाना आवष्यक है। चाहे वह लड़का हो या लड़की। मुण्डन के उपरान्त बच्चे के सिर पर मलाई व हल्दी मिलाकर कई दिनों तक लगाने से बाल अच्छे आते हैं।
कर्णवेध संस्कारः बच्चे के एक बार कान अवष्य छिदवाने चाहिए जिससे हम कान छेदन भी कहते हैं।
उपनयन संस्कारः इसे यज्ञोपवीत या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। पाँच वर्ष की उम्र पूर्ण होन पर बच्चे के विद्यारम्भ करने से पूर्व यह संस्कार करवाया जाता है।
वेदारम्भ संस्कारः जब बच्चा 5 वर्ष का होकर 6 वें साल में प्रवेष करे तो उसे विद्याध्ययन हेतु गुरु के यहाँ गुरुकुल में भेजा जाता है। वहाँ पुनः एक बार उसका यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है। यज्ञोपवीत विद्यार्थी का विद्याध्ययन हेतु आभूषण माना जाता है। इसी संस्कार के बाद व्यक्ति को द्विज माना जाता है यानि उसका दूसरा जन्म होना।
समावर्तन संस्कारः गुरुकुल में 24 वर्ष की अवस्था में बच्चे की षिक्षा पूर्ण होने पर समावर्तन संस्कार किया जाता है। षिक्षा पूर्ण होने पर 25 वें वर्ष के प्रारम्भ में बालक घर आ जाता है।
विवाह संस्कारः 25 वर्ष की अवस्था मंे लड़का व 18 वर्ष की अवस्था में लड़की का विवाह करना वैदिक विधान से सही माना जाता है। इससे कम उम्र के बच्चों का विवाह न करें इससे अधिक उम्र में करें तो उत्तम होता है।
वानप्रस्थ आश्रमः 25 से 50 वर्ष की उम्र तक ग्रहस्थी का सुख भोगने के बाद अपनी जिम्मेदारियों (बच्चों की शादी वगैरह) से मुक्त होकर मनुष्य को वानप्रस्थ में प्रवेष करना चाहिए। वानप्रस्थ में व्यक्ति सफेद वस्त्र धारण करके चाहे तो घर पर ही या अन्यत्र किसी आश्रम या कुटिया बनाकर या तो अकेला या पत्नी को साथ रख सकता है। इस 50 से 75 वर्ष की अवस्था में मनुष्य स्वयं ज्ञान प्राप्त करते हुए दूसरों को सन्मार्ग में दीक्षित करने का प्रयास करता है।
संन्यास आश्रमः जब व्यक्ति 75 वर्ष की उम्र को प्राप्त कर ले तब पत्नी को घर पर ही बच्चों के साथ छोड़कर पूर्ण वैराग्य धारण करके परोपकार के लिए स्थान-स्थान भ्रमण करते हुए अपने ज्ञान से लोगों को सदमार्ग में प्रेरित करता रहे।
अंत्येष्टि संस्कारः व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त यह संस्कार किया जाता है। व्यक्ति के मरने के उपरान्त उसके शरीर को शमषान में अग्नि को समर्पित एक वृहद् यज्ञ करके किया जाता है। इस यज्ञ में कम से कम 25 किलो हवन सामग्री व 10 किलो शुद्ध घी का आवष्यक रूप से उपयोग करना चाहिए अन्यथा व्यक्ति के शरीर के जलने से बहुत प्रदूषण फैलता है जिसका पाप हमें लगता है।
इस प्रकार तीन संस्कार व्यक्ति के जन्म के पूर्व व एक जन्म के बाद होता है बाकी 12 संस्कारों में व्यक्ति खुद साक्षी होता है।
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